उत्तर-अर्धनारीश्वर शंकर और पार्वती की कल्पित रूप 
है, जिसका आधा अंग पुरुष का और आधा अंग नारी 
का होता है। एक ही मूर्ति की दो आँखें-एक रसमयी 
और दूसरी विकराल, एक ही मूर्ति की दो भुजाएँ-एक

त्रिशुल उठाए और दूसरी की पहुँची पर चूड़ियाँ
और ऊँगलियाँ अलक्तक से लाल एवं एक ही मूर्ति
के दो पाँव-एक जरीदारा साड़ी से आवृत और दूसरा
बाघंबर  से ढँका हुआ। स्पष्ट ही, यह कल्पना शिव 
और शक्ति  के बीच पूर्ण समन्वय दिखाने को 
निकाली गई होंगी ।

किंतु पुरुष और स्त्री में अर्धनारीश्वर का यह रूप
आज कहीं भी देखने में नहीं आता। संसार में सर्वत्र पुरुष  पुरुष है और स्त्री स्त्री ।

नारी का काम दानों को अछोरना-पछोरना है। नर है नदियों को वेगमय प्रवाह, नारी उसमें लहर बन कर उठती-गिरती रहती है। सत्य है राजा की ग्रीवा और विशाल वक्षोदेश, रानी उन पर मंदार हार बनकर 
झूलने के लिए है।

दिवस की ज्वाला और तप्त धूप, ये पुरुष की लाई 
हुई चीजे हैं। कामिनी तो अपने साथ यामिनी की 
शांति लाती है।

घर की जीवन सीमित और बाहर का जीवन निस्मीम होता गया एवं छोटी जिंदगी के अधिकाधिक अधीन 
होती चली गई। नारी की पराधीनता का यह संक्षिप्त इतिहास है।

पुरुष जब नारी के गुण लेता है तब वह देवता बन 
जाता है, किंतु नारी जब नर के गुण सीखती है तब राक्षसी हो जाती है।

नारी और नर एक ही द्रव्य की ढली दो प्रतिमाएँ हैं। 
आज सारा जमाना ही मरदाना मर्द और औरतानी 
औरत का जमाना हो गया है। अर्द्धनारीश्वर केवल
इसी बात का प्रतीक नहीं है कि नारी को एक
हद तक नर बनाना भी आवश्यक है ।