उत्तर :-- 'ओ सदीनारा' शीर्षक निबंध के निबंधकार जगदीशचन्द्र माथुर हैं। । माथुर जी एक प्रतिभाशाली निबंधकार हैं। 'उनके लेखन के बहुलांश पर नेहरू युग की कल्पनाशीलता, नवनिर्माण चेतना तथा * आधुनिक वैज्ञानिक परिदृष्टि की छाप है।
तद्नुरूप वे जीवन और रचना दोनों एक
सुव्यवस्था, सुरुचि और कलात्मकता को
आवश्यक मानते थे। सौंदर्यप्रियता और
लालित्यबोध उनकी अभिरूचि के अंग थे।'
यह निबंध 'सदानीरा' गंडक नदी को निमित्त
बनाकर लिखा गया है पर उसके किनारे की संस्कृति
और जीवन प्रवाह की अंतरंग झाँकी पेश करता हुआ जैसे स्वयं गंडक की तरह ही प्रवाहित होता दिखलाई पड़ता है।'
गंडक चम्पारण में बहनेवाली उच्छृंखल नदी
है। यह नदी अपना बहाव क्षेत्र और रास्ता बदल
लिया करती है। गौतम बुद्ध के समय घना जंगल
था, वृक्षों की जड़ों में पानी रुका रहता था। बाढ़
आती थी पर इतनी प्रचंड नहीं। पिछले छह-सात
सौ साल में महावन, जो चम्पारण से गंगा तक फैला हुआ था, कटता चला गया ऐसे ही जैसे अगणित मूर्तियों का भंजन होता गया। वृक्ष भी प्रकृति देवी, वन श्री की प्रतिमाएँ हैं। वसुंधराभोगी मानव और धर्मांध मानव एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।
वर्तमान और अतीत की आद्यंतहीन कड़ी है गंडक
नदी। न जाने कितने महात्माओं और संतों ने इसके किनारे तप और तेज पाया, किन्तु गंडक कभी गंभीर
न बन सकी और इसीलिए इसके किनारे तीर्थस्थल भी स्थाई न रह सके। गंडक तो उच्छृंखल कन्या ही रही ज्येष्ठा-सहोदरा गंगा का गांभीर्य इसे सुहाया नहीं ।
गंडक ने कोई स्मृतियाँ नहीं छोड़ी। भवन नहीं, मंदिर नहीं, घाट नहीं। हवाई जहाज से गंडक घाटी के दोनों ओर नाना आकृति के ताल दीख पड़ते हैं, कही उथले कहीं गहरे किन्तु प्रायः सभी शस्य-श्यामला
धरती रूपी गगन के विशाल अंतस में ठिठकी हुई बदहालियों की भाँति टेढ़े-मेढ़े परन्तु शुभ्र एवं निर्मल।
इन तालों को कहते हैं 'चौर' और 'मन'। चौर उथले
ताल हैं जिनमें पानी जाड़ों और गर्मियों में कम हो
जाता है और खेती भी होती है। मन विशाल और
गहरे ताल हैं।
गंडक नदी का जल सदियों से चंचल रहा है।
इसने कई तीरथ तोड़े। अब वे खंडहर दिखाई पड़ते हैं।
भैंसालोटन में भारतीय इंजीनियर जंगल के बीच निर्माण कार्य कर रहे हैं-नारायण का। ये बनने वाली नहरें ही उस नारायण की अनेक भुजाएँ हैं, बिजली के तारों का जाल ही तो उसका त्राणकर्त्ता चक्र है। लेखक मन ही मन उन्हें नमस्कार करता है।
ओ सदानीरा ! ओ चक्रा ! ओ नारायणी ! ओ महागंडक ! युगों से दीन-हीन जनता इन विविध नामों से गंडक को सम्बोधित करती रही है। गंडक की चिरचंचल धारा ने आराधना के फूलों को ठुकरा दिया ।
समासतः गंडक नदी की चाल-ढाल और उसके कारण परिवर्तनों को निबंधकार ने रेखांकित किया है। यह अत्यन्त दिलचस्प निबंध बन गया है।
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