Ans. 'अंधायुग' डॉ. धर्मवीर भारती (1926-1997 ई.) द्वारा रचित एक बहुचर्चित'गोति नाट्य' है जिसका कथानक पौराणिक एवं प्रख्यात होने पर भी आधुनिक मानवबोध एवं संवेदना से जुड़ा हुआ है। डॉ. भारती ने अपनी प्रखर मेधा का परिचय देते हुए मिथकीय आवरण में समसामयिक समस्याओं को प्रस्तुत कर इस दृश्य काव्य को विचार और चिन्तन के स्तर पर स्तुत्य बना दिया है। इस दृश्य काव्य में जिन समस्याओं को उठाया गया है, उनके सफल निर्वाह के लिए महाभारत के उत्तरार्द्ध की घटनाओं का आश्रय ग्रहण किया गया है।


 इस कृति में महाभारत के अठारहवें दिन की संध्या से लेकर प्रभास तीर्थ में कृष्ण की मृत्यु के क्षण तक के घटना काल को समेटा गया है और केवल उन्हीं पात्रों का चयन किया गया है जो रचनाकार को अपनी बात कहने के लिए आवश्यक जान पड़े हैं। इस पौराणिक आख्यान को नवीन भावबोध से सम्पृक्त करने में भारती जी को जो सफलता प्राप्त हुई है, वही इस कृति की महानतम उपलब्धि कही जा सकती है। 

निजी अनुभूति को व्यापक सत्य के रूप में प्रस्तुत कर पाना रचनाकार की सफलता का मानदण्ड होता है। युग की वेदना भोगकर जो सत्य भारती जी ने प्राप्त किया, उनके अनुसार -"वह अकेले मेरा कैसे हुआ? एक धरातल ऐसा भी होता है, जहां 'निजी' और 'व्यापक' का बाह्य अन्तर मिट जाता है, वे भिन्न नहीं रहते।" 

यद्यपि अन्धा युग के पात्र पौराणिक तथापि आधुनिक सन्दर्भों की प्रासंगिकता का वहन करते हैं। उनमें मनोवैज्ञानिक और मिथकीय धारणा का संयोग हुआ है। वे ऐतिहासिक चरित्र होते हुए भी विशिष्ट मानसिक प्रवृत्तियों, अन्तर्ग्रन्थियों एवं दृष्टिकोणों के प्रतीक हैं।

 सत्य तो यह है कि प्रतीकात्मकता अन्धा युग के नामकरण में, कथा तत्व में एवं पात्रों में सर्वत्र व्याप्त है। इसीलिए अन्धा युग महाभारत की कथा के एक अंश का पुनराख्यान मात्र न होकर मानव के अन्तर्जगत को अभिव्यक्त करने वाली कृति के रूप में बहुप्रशंसित एवं बहुचर्चित रही है। अन्धा युग का प्रकाशन 1954 ई. में हुआ था। तब से लेकर अब तक यह कृति अपनी विषय-वस्तु एवं शैली-शिल्प के कारण बहुचर्चित रही है।

अन्धा युग का कथानक महाभारत के 18वें दिन की संध्या से लेकर प्रभास तीर्थ में कृष्ण की मृत्यु के क्षण तक के कालखण्ड को अपने में समाविष्ट किए हुए है। नाटक के प्रारम्भ में मंगलाचरण के उपरान्त यह 'उद्घोषणा' की गई है कि इस कृति में उस युग 

का वर्णन किया गया है जब धर्म-अर्थ ह्रासोन्मुख होंगे और सत्ता उनके हाथ में होगी जो पूंजीपति हैं। नकली चेहरे वालों को महत्व मिलेगा और राजशक्तियां धन लोलुप होकर जनता का शोषण करेंगी। जनता उनसे


पौड़ित होकर गुफाओं में छिपती फिरेगी ये गुफाएं सचमुच की गुफाएं न होकर अपने कुण्ठित अन्तर (हृदय) की गुफाएं होंगी। महाभारत का युद्ध भी एक ऐसा ही युद्ध था, एक ऐसे ही युग की कथा थी जिसमें मर्यादाओं की डोरियां उलझी हुई थीं, जिसे सिर्फ कृष्ण ही सुलझा सकते थे। उनके अतिरिक्त शेष सब अन्धे थे, पथभ्रष्ट थे। वे सब अपने अन्तर की अन्धगुफाओं के वासी थे। यह कथा उन्हीं अन्धों की कथा है, या फिर अन्धों के माध्यम से ज्योति की कथा है। भारती जो इसका उल्लेख इन शब्दों में करते हैं

"पर शेष अधिकतर हैं अन्धे
 पथभ्रष्ट आत्म हारा विगलित
अपने अन्तर की अन्धगुफाओं के वासी
 यह कथा उन्हीं अन्धों की है 
या कथा ज्योति की है अन्धों के माध्यम से।"

इस गीति नाट्य में कुल पांच अंक हैं। तीन अंकों के बाद एक अन्तराल और पांचवें अंक के बाद 'समापन' है। इनके नाम भी रचना में दिए हैं-------

1पहला अंक-कौरव नगरी

2 दूसरा अंक-पशु का उदय

3.तीसरा अंक- अश्वत्थामा का अर्द्ध सत्य

4. अन्तराल पंख, पहिए और पट्टियां चौथा 
   अंक-गांधारी का शाप

5. पांचवा अंक-विजय एक क्रमिक आत्महत्या

6. समापन-प्रभु की मृत्यु

अन्धा युग का कथानक पौराणिक होते हुए भी युगीन चेतना से सम्पृक्त है। अनेक देशी-विदेशी महाकाव्य लिखे गए हैं-अधर्म और अन्याय पर धर्म एवं न्याय की विजय का उद्घोष करने हेतुं, किन्तु अन्धा युग युद्धोपरान्त मानसिकता का काव्य है, जिसमें विजय पाण्डवों 

की हुई, लेकिन जीवन का समग्र ढांचा नीति अनीति, सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय आदि क्षत-विक्षत हो चुका था। बच रहे थे सिर्फ सवाल, आहत-विकलांग सैनिकों की तरह और बच रहा था विडम्बना युक्त व्यंग्य-अन्धे गलियारे में घूमते उन प्रहरियों की तरह जो घूम-घूम कर

 रक्षा कर रहे थे उस कौरव महल की जहां कुछ भी रक्षणीय नहीं था। कैसा था यह अजब युद्ध जिसमें जय किसी की भी नहीं बस दोनों ही पक्षों को खोना-ही-खोना है।