उत्तर-आधुनिक हिन्दी साहित्य-लेखन में दो धाराएँ आज प्रमुखता से बह रही हैं-एक दलित-लेखन एवं दूसरा नारी स्वातंत्र्य-विषयक लेखन। दोनों ही समाज के कमजोर वर्ग सदियों से रहे हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित-पीड़ा को अभिव्यक्ति देनेवाले लेखक हैं ।

ओमप्रकाश वाल्मीकि ने 'जूठन' नाम से
अपनी आत्मकथा लिखी है, जिसमें दलितों की 
पीड़ा बोल रही है। दलित वर्ग सदियों से अन्याय, अपमान, उत्पीड़न और अभाव झेल रहा है। उसे 
जूठन खाना पड़ता है ।

लेखक अपनी ही आत्मकथा में अपनी ही
पीड़ा का बेबाक चित्रण उपस्थित करता है।

स्कूल में लेखक को झाडू लगाना पड़ता था। 
स्कूल के शेष बच्चे उसे देखकर हँसते रहते थे। हेडमास्टर द्वारा दी जा रही इस यातना से लेखक
का रोम-रोम काँप उठता था। लेखक के पिता ने 
स्कूल जाकर डाँट-डपट की। पिता के हौसले पर
 लेखक अत्यन्त प्रसन्न हुआ।

जूठन खाना अत्यन्त अपमान की बात है। पर 
जिसका पेट न भरा हो और पेट भरने के लिए
कोई जीविका न हो और प्रतिमाह वेतन का कोई 
रास्ता न हो तो उसके लिए मान क्या ? अपमान
 क्या ? दोनों बराबर !

कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण लेखक की माँ 
मेहनत मजदूरी करती थी। वह साफ-सफाई का भी 
काम करती थी । पारिश्रमिक भी पर्याप्त न मिलता था।

शादी-ब्याह के मौकों पर मेहमान या बाराती के
खाना खा लेने के बाद बड़े-बड़े टोकरों में पत्तल
सहित जूठन उठाया जाता था। गरीब जूठन खाकर अत्यन्त प्रसन्न हो जाते थे। अक्सर ऐसे मौकों पर 

बड़े बूढ़े ऐसी बारातों का जिक्र बहुत रोमांचक लहजे 
में सुनाया करते थे कि उस बारात से इतनी जूठन आई कि महीनों खाते रहे। सूखी पूरियाँ बरसात के कठिन दिनों में बहुत काम आती थीं।

अब लेखक जब इन सब बातों के बारे में सोचता है तो उसके मन के भीतर काँटे जैसे उगने लगते हैं। लेखक को ऐसे जीवन पर अपमान महसूस होता है। बदला लेने की भावना बलवती होने लगती हैं ।

दिन-रात मर-खपकर भी हमारे पसीने की कीमत मात्र जूठन, फिर भी किसी को कोई शिकायत नहीं। कोई शर्मिंदगी नहीं, कोई पश्चाताप नहीं।

बड़े घरों के लोग जब लेखक के शहर के निवास पर आते तो उनका मान-सम्मान होता था। बदले में वे जहरीली टिप्पणियाँ कर जाते थे।

निष्कर्षतः--  दलित-लेखन के एक श्रेष्ठ लेखक हैं- ओमप्रकाश वाल्मीकि और उनकी श्रेष्ठ रचना है-'जूठन' जो पाठकों के हृदय में दलित-कल्याण करने की प्रेरणा जगाती है और जगाती है दलितों में ऊपर उठने की भावना।